दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि मकान मालिक और किरायेदार के बीच जो भी ऐसा समझौता होता है, जो मकान मालिक को उसकी वास्तविक जरूरत (Bona fide requirement) के आधार पर बेदखली की अर्जी दायर करने से रोकता हो, वह कानूनी तौर पर मान्य नहीं होगा। कोर्ट ने यह कहा कि वैधानिक अधिकारों को किसी भी समझौते के जरिए स्थायी रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता।

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मामला और पृष्ठभूमि
यह विवाद दिल्ली के एक थोक बाजार की दुकान को लेकर था, जहाँ किरायेदार लगभग 85 वर्षों से काबिज थे। दुकान का किराया केवल ₹2,178 प्रति माह था। निचली अदालत ने 28 अगस्त 2018 को मकान मालिक की असली आवश्यकता को सही मानते हुए दुकान खाली करने का आदेश दिया। किरायेदारों ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन 5 अगस्त 2025 को उनकी याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद किरायेदारों ने उसी निर्णय की समीक्षा के लिए पुनर्विचार याचिका लगाई, जिसे भी अदालत ने खारिज कर दिया।
किरायेदारों की दलीलें
किरायेदारों की ओर से वकील ने दो मुख्य तर्क रखे:
- वैधानिक अधिकार का त्याग: उनका कहना था कि 2008 में दोनों पक्षों के बीच ऐसा समझौता हुआ था, जिसमें मकान मालिकों ने मकान मालिक के अधिकारों को छोड़ दिया था कि वे भविष्य में धारा 14(1)(e) के तहत बेदखली की कार्रवाई न करें। यह समझौता किराए में वृद्धि की शर्त पर हुआ था।
- वक्फ संपत्ति का बंटवारा: किरायेदारों ने दावा किया कि विवादित संपत्ति वक्फ संपत्ति है, जिसका बंटवारा कानूनन संभव नहीं, इसलिए 2016 का संपत्ति बंटवारा अवैध है।
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अदालत का निर्णय
हाईकोर्ट ने किरायेदारों की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि 2008 का समझौता मकान मालिक को बेदखली की अर्जी दायर करने से नहीं रोक सकता। कोर्ट ने बताया कि वे सारे समझौते जो मकान मालिक के वैधानिक अधिकार को रोकते हों वे भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 23 और 28 के अंतर्गत शून्य (void) माने जाएंगे, चाहे उनके पीछे कोई मुआवजा क्यों न हो।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मकान मालिक या उनके पूर्वज यह नहीं मान सकते कि भविष्य में उन्हें अपनी संपत्ति की कोई जरूरत नहीं होगी, क्योंकि ‘बोनाफाइड जरूरत’ कभी भी हो सकती है।
जहां तक वक्फ संपत्ति का सवाल है, कोर्ट ने रेंट कंट्रोलर के निर्णय को सही ठहराया। मकान मालिक को पूरी ‘टाइटल’ साबित करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि यह साबित करना जरूरी होता है कि उसका अधिकार किरायेदार से बेहतर है। 2016 के बंटवारे से सिर्फ संपत्ति की देखरेख और किराया लेने का अधिकार स्थानांतरित हुआ था, संपत्ति की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं हुआ। इसके अलावा, किरायेदारों ने मकान मालिक के पिता को किराया दिया और उन्हें मकान मालिक माना, इसलिए वे अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 116 के तहत इस अधिकार को चुनौती नहीं दे सकते।
















