
उत्तराखंड और हिमाचल के पहाड़ी इलाकों में जब दीपावली का शोर कहीं दूर छंट जाता है, उसके कुछ हफ्तों बाद असली रौनक देखने को मिलती है, वह दिन होता है बूढ़ी दिवाली या इगास बग्वाल का। यह त्योहार इन इलाकों के लोगों के लिए सिर्फ “एक और दिवाली” नहीं, बल्कि उनकी जड़ों, संस्कृति और सामूहिक पहचान का उत्सव है। इसलिए, अब लगातार मांग उठ रही है कि इस दिन को सरकारी अवकाश के रूप में मान्यता दी जाए।
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क्यों मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान राम 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो इस खबर को पहाड़ों तक पहुंचने में लगभग एक महीने का समय लग गया। ऐसे में, स्थानीय लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई – और यही परंपरा आज भी “बूढ़ी दिवाली” के रूप में जीवित है।
एक अन्य धार्मिक मान्यता कहती है कि इस दिन पहाड़ी क्षेत्रों में दानवों और असुरों पर विजय का पर्व मनाया गया था, इसलिए लोग पारंपरिक नृत्य, गीत और उत्सवों के माध्यम से खुशी जाहिर करते हैं।
संस्कृति और पहचान का त्योहार
इगास बग्वाल सिर्फ दीपक और मिठाइयों का त्योहार नहीं, बल्कि यह पहाड़ी जीवन की आत्मा को दर्शाता है। इस दिन गाँव-गाँव में रासो, तांदी, हारुल जैसे पारंपरिक नृत्य और लोकगीत गाए जाते हैं। परिवारों में “घी की ज्योति” जलती है, पारंपरिक व्यंजन बनते हैं और बच्चों को स्थानीय कहानियाँ सुनाई जाती हैं। यह त्योहार इन समुदायों को उनकी मूल पहचान से जोड़ता है और नई पीढ़ियों को उनके लोक-संस्कारों का गर्व महसूस कराता है।
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पर्यावरण के अनुकूल परंपरा
दिलचस्प बात यह है कि यह पर्व पटाखों के बिना मनाया जाता है। यहाँ की दिवाली प्रदूषण नहीं फैलाती, बल्कि “भीमल” की लकड़ी से बनी मशालों से रात को रोशन किया जाता है। इस तरह, यह प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक बन जाता है — एक सच्चा “इको-फ्रेंडली” उत्सव।
सरकारी अवकाश की मांग क्यों उठ रही है
स्थानीय कर्मचारी संगठन और सांस्कृतिक परिषदें लगातार मांग कर रही हैं कि इस पर्व के दिन राज्य स्तर पर सरकारी अवकाश घोषित किया जाए। उनका कहना है कि उत्तराखंड और हिमाचल के लोगों के लिए यह त्योहार मुख्य दिवाली जितना ही महत्वपूर्ण है, इसलिए उन्हें पारिवारिक रूप से इसे मनाने का अवसर मिलना चाहिए।
कई पूर्व मुख्यमंत्रियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने भी इस विचार का समर्थन किया है। कुछ जिलों में पहले ही इसे “स्थानीय अवकाश” के रूप में घोषित किया गया है, लेकिन पर्व को राज्य स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए आवाज़ अब और बुलंद हो रही है।
क्यों जरूरी है यह मान्यता
कई सामाजिक विशेषज्ञों का मानना है कि बूढ़ी दिवाली को आधिकारिक छुट्टी देने से न केवल लोगों की सांस्कृतिक पहचान को सम्मान मिलेगा, बल्कि स्थानीय पर्यटन और पारंपरिक कला को भी बढ़ावा मिलेगा। युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इन पर्वों से दूर होती जा रही है, और यह छुट्टी उन्हें अपनी मिट्टी से दोबारा जोड़ने का जरिया बन सकती है।
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