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SC/ST एक्ट के दुरुपयोग पर कोर्ट सख्त! फर्जी केस दर्ज कराने वालों को 5 साल तक की सजा, कहा, “कठोर दंड जरूरी वरना बढ़ेगा दुरुपयोग”

सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST Act के दुरुपयोग और न्यायिक संतुलन पर कई अहम टिप्पणियाँ की हैं। 2018 से अब तक कोर्ट ने कानून की सख्ती, गिरफ्तारी प्रक्रिया और फर्जी मामलों पर सख्त रुख अपनाया है। जानिए कैसे यह अधिनियम दलितों-आदिवासियों की सुरक्षा के साथ-साथ झूठे केस दर्ज कराने वालों पर भी कठोर कार्रवाई का प्रावधान रखता है।

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भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के नागरिकों को ऐतिहासिक अन्याय से बचाने के लिए विशेष सुरक्षा दी है। इन्हीं सुरक्षा उपायों में से एक है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, जिसे आमतौर पर SC/ST Act कहा जाता है। इस कानून का मूल उद्देश्य है समाज के कमजोर वर्गों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकना और उन्हें त्वरित न्याय दिलाना।

लेकिन बीते वर्षों में इस कानून के कुछ प्रावधानों को लेकर विवाद भी हुआ है। कई मामलों में यह आरोप लगा कि इस अधिनियम का कुछ लोगों ने व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिए दुरुपयोग किया। यही कारण है कि Supreme Court ने समय-समय पर इस विषय पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ और फैसले दिए हैं।

कानून का उद्देश्य और दंड का प्रावधान

SC/ST Act में कठोर सज़ाओं का प्रावधान किया गया है ताकि किसी भी व्यक्ति या संस्था को अनुसूचित जाति या जनजाति के सदस्य के साथ भेदभाव या उत्पीड़न करने की हिम्मत न हो। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस Act में फर्जी या दुर्भावनापूर्ण शिकायत दर्ज कराने वालों के खिलाफ भी सख्त सज़ा का प्रावधान है।

अधिनियम की संबंधित धाराओं (जैसे धारा 3(1)(p)) के तहत, यदि कोई व्यक्ति किसी SC/ST सदस्य के खिलाफ malicious intent से झूठी कानूनी कार्यवाही शुरू करता है, तो उसे छह महीने से पाँच साल तक की कैद और जुर्माने की सज़ा हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि यह सज़ा केवल एक औपचारिक प्रावधान नहीं, बल्कि deterrent measure यानी निवारक माध्यम है ताकि कोई भी व्यक्ति कानून का गलत इस्तेमाल करने से पहले सोच-समझ ले।

2018 का अहम फैसला

मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि अधिनियम का कुछ मामलों में दुरुपयोग हो रहा है। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि किसी आरोपी को सीधे गिरफ्तार करने के बजाय पहले Preliminary Inquiry (प्रारंभिक जांच) की जानी चाहिए। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ गिरफ्तारी के लिए सक्षम प्राधिकारी की written permission अनिवार्य की गई थी।

इस फैसले का देशभर में मिश्रित असर देखने को मिला। जहाँ कई लोगों को यह फैसला न्यायिक संतुलन की दिशा में कदम लगा, वहीं कई दलित संगठनों ने इसे न्याय में बाधा बताया और व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए।

सरकार का संशोधन और कोर्ट की पुनर्विचार पीठ

जनभावना को देखते हुए केंद्र सरकार ने जल्द ही संशोधन विधेयक (Amendment Bill) लाकर अधिनियम की मूल सख्ती बहाल कर दी। अक्टूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने पहले वाले फैसले के गिरफ्तारी संबंधी हिस्से को रद्द कर दिया। यानी, फिर से यह व्यवस्था बहाल हो गई कि SC/ST Act के तहत दर्ज मामलों में पुलिस तत्काल गिरफ्तारी कर सकती है, बिना किसी पूर्व जांच या अनुमति के।

इस पुनर्विचार आदेश में कोर्ट ने यह भी दोहराया कि कानून के अस्तित्व का core purpose दलितों और आदिवासियों की रक्षा है, और इसे कमजोर नहीं किया जा सकता।

दुरुपयोग और न्याय — दोनों की लड़ाई

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि कानून का गलत उपयोग किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। अदालतों ने कहा कि जो लोग झूठे केस दर्ज करवाते हैं, उनके खिलाफ भी उतनी ही सख्ती से कार्रवाई होनी चाहिए, जितनी किसी अपराधी के खिलाफ होती है।

इस संतुलन की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि कानून का उद्देश्य किसी को फँसाना नहीं, बल्कि protection and justice देना है। इसलिए कोर्ट लगातार इस बात पर जोर देता रहा है कि प्रशासनिक संस्थाएँ शिकायतों की निष्पक्ष जांच करें और न्याय दोनों पक्षों को समान रूप से मिले।

Author
Divya

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